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१९ जून, १९५७
मधुर मां, जब कोई व्यक्ति सख्त बीमार हो जाता है तो यह विशुद्ध भौतिक घटना होती है या उसके आध्यात्मिक जीवनकी कठिनाई?
यह निर्भर करता है व्यक्तिपर! यदि वह व्यक्ति योग कर रहा हो तो स्पष्ट ही यह उसके आध्यात्मिक जीवनकी एक कठिनाई होती है । यदि उस ब्यक्तिका योगसे कुछ भी संबंध न हो और वह साधारण प्रकारका जीवन व्यतीत कर रहा हो ते। यह एक साधारण दुर्घटना होती है । यह पूरी तरह ब्यक्तिपर निर्भर है । बाह्य घटना एक जैसी हो सकती है परन्तु आंतरिक कारण बिलकुल भिन्न होते है । कोई भी दो बीमारियां ठीक एक जैसी नहीं होतीं, यद्यपि बीमारियोंपर नामके परचे लगा दिये गये है और उनके श्रेणीकरणका प्रयत्न किया गया है, पर वास्तविक बात यह है कि हर कोई अपने ढंगसे बीमार पड़ता है और उसका ढंग इसपर निर्भर है कि वह क्या है, उसकी चेतनाकी स्थिति क्या है और वह कैसा जीवन व्यतीत करता है ।
हम बहुत बार कह चुके है कि रोग हमेशा सतुलन-भंगका परिणाम होते हैं । परन्तु यह संतुलन-भंग सत्ताकी बिलकुल विभिन्न अवस्थाओंमें हो सकता है। एक साधारण आदमीके लिये, जिसकी चेतना बाह्य भौतिक जीवनमें
११४ केंद्रित हैं, यह विशुद्ध रूपसे भौतिक संतुलनका, उसके विभिन्न अवयवोंकी क्रियामें संतुलनका, भंग होता है । परन्तु जब इस विशुद्ध ऊपरी जीवनके पीछे आंतरिक जीवनका निर्माण होता है तो रोगके कारण बदल जाते हैं । वे सदा ही सत्ताके विभिन्न भागोंके बीच संतुलनका प्रकट करते है : व्यक्ति- की आंतरिक प्रगति या आंतरिक प्रयत्न ओर उसके जीवनकी, शरीरकी बाह्य स्थिति या प्रतिरोधक बीच असंतुलनको प्रकट करते हैं;
यहांतक कि सामान्य बाह्य दृष्टिसे मी, बहुत लंबे समयसे लोग इसे जानते है कि तात्कालिक नैतिक कारणोंसे होनेवाली प्राणमें प्रतिरोधकी कमी ही सदा बीमारीका मूल कारण होती है । जब व्यक्ति एक सामान्य संतुलनकी अवस्थामें होता है और सामान्य शारीरिक समस्वरताकी अवस्थामें रहता है तो शरीरमें प्रतिरोधकी अपनी शक्ति होती है, बीमारियोंके प्रतिरोधका एक यथेष्ट वातावरण उसके अंदर होता है : उसका अत्यधिक भौतिक तत्व ऐसे सूक्ष्म स्पन्दन भेजता है जिनमे रोगोंका, यहांतक कि संक्रामक कहलानेवाले रोगोंका भी सामना करनेकी शक्ति होती है (वस्तुत: सभी स्पंदन संक्रामक होते है, फिर भी कुछ रोग विशेष रूपसे संक्रामक माने जाते है) । हां तो, विशुद्ध बाह्य दृष्टिसे भी यदि कोई व्यक्ति ऐसी अवस्थामें हो कि उसके अंगोंकी क्रियाएं समस्वर हों और उसमें यथेष्ट नैतिक संतुलन हों तो उसके साथ ही उसमें प्रतिरोधकी सभी ऐसी शक्ति होती है कि छूतकी बीमारी उसे छू नहीं सकती । परन्तु यदि किसी-न-किसी कारण वह अपना संतुलन खो बैठे या उदाहरणार्थ किसी अवसाद, असंतोष, नैतिक कठिनाई या अत्यधिक थकानके कारण कमजोर पडू जाय तो शरीरकी सामल्य प्रतिरोध हाक्ति कम हो जाती है और वह रोगके प्रति खुल जाता है । परन्तु यदि हम उस व्यक्तिका विचार करे जो योग कर रहा है तो बात ?? अलग हो जाती है, इन अर्थोंमें कि तब असंतुलनको कारण दूसरे प्रकारके होते है और बीमारी सामान्यत: किसी ऐसी आंतरिक कठिनाईको प्रकट करती है जिसे जीतना है ।
तो प्रत्येकको अपने-आप ढूंढना होगा कि वह बीमार क्यों है ।
सामान्य दृष्टिकोणसे, अधिकतर लोगोंमें प्राय. भय -- यह मानसिक या प्राणिक भय हो सकता है, पर प्रायः सदा ही यह शारीरिक भय, कोषाणु- गत भय -- होता है जो सब प्रकारकी छूतकी बीमारियोंके प्रति द्वार खोल देता है । मानसिक भयको वे सब व्यक्ति हटा सकते है जिनमें थोड़ा आत्म- संयम और मानवोचित गौरव हो । प्राणिक भय अधिक सूक्ष्म होता है और अधिक बड़े संयमकी मांग करता है । और जहांतक शारीरिक भयकी बात है उसपर विजय पानेके लिये तो सच्चे योगकी आवश्यकता पड़ती है,
११५ कारण, शरीरके कोषाणु सभी अप्रिय एवं कष्टकारी वस्तुओंसे डरते है और ज्यों ही कुछ बेचैनी हुई, चाहे वह बहुत मामूली-सी हो, वे चिंताकुल हो उठते है, वे आरम्में जरा भी बाधा पसंद नहीं करते । तो उनपर विजय पानेके लिये ब्यक्तिका चेतन संकल्पपर प्रभुत्व जरूरी है । सामान्यत: इस प्रकारका भय ही बीमारियोंके. लिये द्वार खोल देता है । मैं पहले दो भैयों (मानसिक और प्राणिक भयों) की बात नहीं करती, उनपर तो, जैसा कि मैंने कहा, किसी भी मनुष्यको जो इस शब्दके श्रेष्ठतम अर्थमें मनुष्य होना चाहता है विजय पा लेनी चाहिये क्योंकि वह (भय) एक कायरता है । पर शारीरिक भयको जीतना अधिक कठिन है, इसके न रहनेपर तो अत्यंत प्रबल आक्रमणोंको भी हटाया जा सकता है । यदि व्यक्तिका अपने शरीर- पर थोड़ा भी नियंत्रण हों तो वह रोगके प्रभावोंको कम कर सकता है पर वह निरापदता नहीं है । शरीरके कोषाणु स्थूल भौतिक भयके कारण सिहर उठते हैं, यही चीज बीमारियोंको बढ़ा देती है ।
कई ऐसे व्यक्ति होते है जो स्वाभाविक रूपसे नहीं डरते, शरीरमें भी नहीं; उनमें यथेष्ट प्राणिक संतुलन होता है, इससे वे भय नहीं खाते, डरते नहीं, उनके शारीरिक जीवनके लय-तालमें एक स्वाभाविक समस्वरता होती है जिससे वे सहज हीं बीमारी को बहुत हलका कर लेते हैं । इसके विपरीत, दूसरे कई ऐसे होते है जिनके लिये बीमारी बुरे-सें-बुरा रूप ले लेती है, यहांतक कि कमी-कभी तो विनाशकारी स्थितितक पहुंच जाती है । यहां एक पूरा सोपान-क्रम है जिसे आसानीसे देखा जा सकता है । हां, यह उनके जीवनका गतिके एक प्रकारके सुखकर लय तालपर निर्भर होता है जो या तो इतना यथेष्ट मात्रामें समस्वर होता है कि वह रोगके बाह्य आक्रमणोंका प्रतिरोध कर सकता है, या फिर होता ही नहीं, अथवा पर्याप्त सशक्त नहीं होता और उसका स्थान भयकी सिहरन, एक प्रकारकी सहजात आशंका ले लेती है जो जरा-सें भी अप्रिय संपर्कको किसी कष्टदायक और बुरी चीजमें बदल डालती है । ता यह एक पूरा सोपान-क्रम है, उस व्यक्ति- से लेकर जो गभीर संक्रामक रोगों और महामारियोंसे मी अछूता निकल जाता है, उस व्यक्तितक जो जरा-सी बातसे बीमार पडू जाता है । अतः स्वाभाविक रूपसे यह हर व्यक्तिके गठनपर निर्भर है । और जैसे ही वह प्रगतिके लिये प्रयत्न करना चाहता है यह स्वभावत. उसके अर्जित आत्म-प्रभुत्वपर निर्भर करता है -- जबतक कि शरीर उन्चतर 'इच्छा-शक्ति'- का आशा माननेवाले यंत्र नहीं बन जाता और इससे समस्त आक्रमणोंके लिये एक सामान्य निवारण शक्ति नहीं पा लेता ।
परन्तु जब व्यक्ति भयको। निकाल सकता है तो वह लगभग सुरक्षित हो
११६ जाता है । उदाहरणार्थ, महामारियां या तथाकथित महामारियां - जैसी कि आजकल फैली हुई हैं -- निन्यानवे प्रतिशत भयसे आती हैं, यह भय तब एक बहुत ही गंदे मानसिक भयका रूप ले लेता है, और इसे पैदा करनेवाली चीजों है अखबारोंकी खबरें, व्यर्थके बातें और न जानें क्या- क्या ।
मां, दवाइयोंकी उस शरीरके लिये क्या उपयोगिता है जो पूरा अचेतन नहीं है? क्योंकि जब हम भागवत कृपाको उतारनेकी चेष्टा करते हैं तब भी देरवते है कि थोडी-सी दवाकी जरूरत है, यदि दवा दी जाती है तो वह लाभ करती है । क्या इसका अर्थ यह है कि केवल शरीरको दवाकी आवश्यकता है या यह कि मन-प्राणमें कहीं कोई दोष है?
अधिकतर प्रसंगोंमें दवाका उपयोग (जब उसे उचित मात्रामें लिया जाता है, अर्थात् व्यक्ति उससे अपने-आपको विषाक्त नहीं करता) बस, इतना ही है कि वह शरीरमें आत्म-विश्वास पैदा करनेमें सहायता पहुंचाती है । शरीर ही अपने-आपको नीरोग करता है । जब यह अच्छा होना चाहता है तो अच्छा हो जाता है । और इस बातको अब काफी बड़ी संख्यामें लोग मानने लगे है, यहांतक कि बहुत-से परंपरावादी डाक्टर भी कहते है : ''हां, हमारी दवाइयों सहायता करती है, पर दवाइयां नीरोग नहीं करती, शरीर ही नीरोग होनेका निश्चय करता है ।', ठीक है, जब शरीरसे कहा जाता है ''यह लो'' तो यह अपने-आपसे कहता है, ''अब मैं अच्छा हो जाऊंगा'' और जब यह कहता है कि ''मै नीरोग हों रहा हू'' तो हा, यह नीरोग हो जाता है!
लगभग सभी रोगोंके लिये ऐसी चीज़ें है जो सहायता करती हैं -- थोडी-सी -- बशर्ते कि उनका उपयोग उचित मात्रामें किया जाय । यदि उचित रूपमें न किया गया तो निश्चय रखो कि तुम पूरी तरह टूट जाओगे । तुम एक चीजका इलाज करोगे और दूसरीके शिकार हों जाओगे जो साधारणतया उससे भी बुरी होगी । पर फिर भी, यह थोडी-सी सहायता, बस, थोडी-सी कोई चीज जो तुम्हारे शरीरको यह विश्वास दिला दे : ''अब ठीक होगा, अब चूंकि मैंने यह लें ली है इसलिये निश्चय ही सब कुछ बिलकुल ठीक हो जायगा,'' शरीरको बहुत सहायता पहुंचाती है और यह अच्छा होनेका निश्चय कर लेता है ओर अच्छा हों जाता है ।
यहां भी संभावनाओंका एक पूरा ''सरगम'' है उस योगीसे लेकर जो
११७ आंतरिक संयमकी ऐसी पूर्ण अवस्थामें होता है कि विष खाकर भी उससे विषाक्त नहीं होता, उस व्यक्तितक जो जरा-सी खरोंच लगनेपर डाक्टर- के पास भागा जाता है और जिसे सब प्रकारकी विशेष दवाइयोंकी जरूरत होती है ताकि शरीर स्वस्थ होनेके लिये उपयुक्त क्रिया कर सकें । यह एक पूरा ''सरगम'' है, जिसमें सभी संभव उदाहरण है, सर्वांगीण एवं उच्च- तम आत्म-प्रभुत्वसे लेकर समस्त बाह्य सहौषधियों और बाहरसे सेवन की जानेवाली चीजोंकी दासतातक -- दासता और पूर्ण स्वतंत्रता । यह एक पूरा क्रम-सोपान है । सभी कुछ संभव है । यह बाह्य स्वरोंके एक बहुत बड़े पदके समान है, जो अत्यधिक जटिल, पर अत्यधिक पूर्ण है, जिसे तुम बजा सकते हो और शरीर वाद्य-यंत्र है ।
मां, क्या व्यक्ति मानसिक प्रयत्नके द्वारा (उदाहरणार्थ, बीमार पडनेपर दवा न लेनेके संकल्पके द्वारा) शरीरको समझनेमें सफल हो सकता है?
इतना काफी नहीं है । मानसिक संकल्प काफी नहीं है, बिलकुल नहीं । तुम्हारे शरीरमें ऐसी सूक्ष्म प्रतिक्रियाएं होती है जो मानसिक संकल्पकी बात नहीं मानतीं, यह काफी नहीं होता । किसी और चीजकी जरूरत है ।
दूसरी भूमिकाओंका स्पर्श करना चाहिये । मनकी शक्तिसे अधिक उच्च शक्तिकी आवश्यकता है ।
और इस दृष्टिसे देखें तो मनकी सभी चीजों आंतरिक शंकाका विषय होती है । तुम एक निश्चय कर लेते हो पर विश्वास रखो कि हमेशा कोई ऐसी चीज आयेगी जो शायद इस निश्चयका खुला विरोध तो न करे, पर इसकी प्रभावकारितापर शंका करेगी । इतना काफी है, समझे, जरा- सें भी संदेहके उठ खड़े होनेसे संकल्पका आधा प्रभाव खो जाता है । जब तुम कहते हों, ''मैं यह चाहता हू,'' ठीक उसी समय यदि कहीं पीछे, पृष्ठ- भूमिमें कोई ऐसी चीज छिपी हो जो पूछती हों, ''परिणाम क्या होगा? '' तो सब कुछ नष्ट करनेके लिये इतना काफी है ।
मनकी क्रियावलीका यह खेल अति सूक्ष्म है और कोई भी सामान्य मानवी साधन इसे पूरी तरह नियंत्रित करनेमें सफल नही हों सकता । उदाहरणके लिये, इस चीजको वे सब अच्छी तरह जानते है जो योगका अभ्यास करते है और अपने शरीरपर प्रभुत्व पाना चाहते है : यदि उन्होंनें कठोर यौगिक साधनाके द्वारा अपने अंदरकी किसी चीजको -- शरीरकी
११८ किसी विशेष दुर्बलताको, किसी असंतुलनकी ओर खुलनेको -- नियंत्रित करनेमें सफलता पा ली हो, यदि उन्होंनें इसपर काb पा किया हो और उसका कुछ फल सामने आया हों, उदाहरणके लिये, वह असंतुलन लंबे समयतक, बरसोंतक न रहा हों, तो यदि किसी दिन, किसी मुहूर्त्त उनके मनमें यह विचार घूम जाय, ''आह! अब यह समाप्त हो गया,'' तो अगले ही क्षण वह वापस आ जाता है । इतना-भर काफी होता है । क्योंकि यह चीज बताती है कि व्यक्ति विचारके स्तरपर, जहां कि उसपर आक्रमण हो सकता है परित्यक्त वस्तुके स्पदनोंके संपर्कमें आ गया और इस चीजने शक्तियोंकी क्रीडामें उन्हें शुक प्रकारका कारण प्रदान कर दिया, उसे उधर खोल दिया और वह चीज वापस आ जाती है ।
योगमें यह तथ्य खूब सुपरिचित है । प्राप्त विजयके बारेमें कहना- भर: ही - मनसे कहना भी, समझे, उसके बारेमें सोचना भी योगके वर्षके समस्त प्रभावको नष्ट कर देनेके लिये काफी है । बाहरसे आनेवाले. समस्त स्पदनोंकी रोकनेके लिये एक प्रबल मानसिक नीरवता अपरिहार्य है । पर इस नीरवताको पाना इतना कठिन है कि उसके लिये व्यक्तिको, श्रीअरविंदने जिसे ''निम्न गोलार्द्ध'' कहा है, उसे पार करके उच्चतर, पूर्णत: आध्यात्मिक. गोलार्द्धमें पहुंच जाना होगा, ताकि ऐसी बात फिर न हो ।
नहीं, मानसिक क्षेत्रमें विजयकी प्राप्ति नहीं हुआ करती । यह असंभव है । यह क्षेत्र सभी प्रभावोंके प्रति, सभी विरोधी धाराओंके प्रति खुला है । तुम्हारी बनायी हुई सभी मानसिक रचनाएं, अपना विरोधी तत्व भी अपने साथ लिये रहती है । व्यक्ति उसे दमन करनेकी कोशिश कर सकता है, जहांतक संभव हों उसे अ-हानिकर बना सकता है, पर उत्सका अस्तित्व बना रहता है, वह चीज विद्यमान रहती है और जरा-सी मी दुर्बलता पाकर या जागरूकता अथवा सावधानताकी कमी पाकर अंदर घुस आती है और सारे कार्यको नष्ट कर देती है । मनके द्वारा बहुत कम परिणाम प्राप्त होते है और जो होते भी है वे मिश्रित होते है । किसी और चीजकी आवश्यकता है । सुरक्षित रूपमें कार्य करनेके लिये व्यक्तिको मनके क्षेत्रसे श्रद्धाके क्षेत्रमें या फिर उच्चतर चेतनाके क्षेत्रमें जाना चाहिये ।
यह बहुत स्पष्ट है कि श्रद्धा शरीरपर क्रिया करनेके लिये एक बहुत प्रभावशाली सावन है । वे लोग जो सरलहृदय होते है, जिनमें विचारों- की जटिलता नहीं होती -- सीधे-सादे लोग, हं -- जिनका मानसिक विकास बहुत उच्च और जटिल नहीं होता, पर जिनमें एक गहरी श्रद्धा
११९ होती है, अपने शरीरको अत्यधिक प्रभावित कर सकते है, अत्यधिक । यही कारण है कि कभी-कभी लोग आश्चर्य करते हैं ''देखो, एक यह व्यक्ति है जो महान् उपलब्धि पा चुका है, असाधारण है, फिर भी छोटी-छोटी भौतिक वस्तुओंका दास है जब कि वह दूसरा व्यक्ति, हे भगवान! - जो बिलकुल साधारण, सीधा-सादा आदमी है, और अनगढ़ लगता है पर जिसमें बड़ी श्रद्धा है, कठिनाइयों और बिध्न-बाधाओंको ऐसे पार कर जाता है मानों एक विजेता हो! ''
मैं .यह नहीं कहती कि उच्च मानसिक विकासवाला व्यक्ति श्रद्धा प्राप्त नहीं कर सकता, पर यह अधिक कठिन है । क्योंकि वहां सदा ही यह मानसिक तत्व विद्यमान रहता है जो प्रतिवाद करता, तर्क करता व समझनेकी कोशिश करता. है, पर जिसे समझना व विश्वास दिलाना कठिन है, वह प्रमाण चाहता है । उसकी श्रद्धा कम (वरी होती है । उसके लिये इस सर्पिल विकासमें एक अधिक ऊंची स्थितिको प्राप्त करना, मनसे परे आध्यात्मिकतामें जाना जरूरी है, तब वहां स्वभावत: ही श्रद्धा एक ऐसा लेती है जो बहुत ऊंचे प्रकारका होता है । परंतु मेरा मत- लब है कि साधारण दैनिक जीवनमें एक बहुत सीधा-मादा मनुष्य जिसमें बहुत ज्वलंत श्रद्धा हो शरीरपर प्रभुत्व पा सकता है (यह सच्चा ''प्रभुत्व'' नहीं होता, यह केवल एक सहज-स्वाभाविक गति होती है), अपने शरीर- पर अधिक बड़ा नियंत्रण रख सकता है अपेक्षा उसके जो विकासकी बहुत ऊंची अवस्थाको पहुंच चुका हो ।
मां, मुझे एक व्यक्तिगत प्रश्न पूछना है । एक असाध्य रोग, अंग-संबंधी रोग आपकी कृपासे दूर हो गया है, पर जरा-सा क्यिा-संबंधी रोग दूर नहीं हो पा रहा । यह कैसे? फिर उसी शरीरमें! यह ग्रहणशीलताकी कमी है या...
यह चीज इतनी अधिक व्यक्तिगत है कि इसका उत्तर देना असंभव है । जैसा कि मैंने कहा कि प्रत्येक व्यक्तिके लिये बात बिलकुल भिन्न होती है, और जबतक क्रिया-व्यापारके पूरे विस्तारमें न जाया जाये तबतक इन चीजों- की व्याख्या नहीं दी जा सकती । प्रत्येक व्यक्तिका प्रसंग भिन्न होता है !
और प्रत्येक वस्तुके लिये, प्रत्येक घटनाके उतनी ही व्यारव्यग़रं दी जा सकती है जितने चेतनाके स्तर है । एक दृष्टिसे... निश्चय ही, यह अत्यधिक सीधी-सादी दृष्टि है, यह कहा जा सकता है कि एक भौतिक व्याख्या है, एक प्राणिक व्याख्या है, एक मानसिक व्याख्या है, एक आध्या-
त्मिक व्याख्या है, एक... । एक ही तथ्यके लिये व्याख्याके अनगिनत स्तर है । कोई भी व्याख्या पूरी सच्ची नहीं, सभीमें सत्यका अंश होता है । और अतमें यह कहा जा सकता है कि यदि तुम व्याख्याओंके क्षेत्रमें प्रवेश करना चाहो, यदि तुम एक चीजको लो और उसकी व्याख्या देंने लगो तो सदा ही तुम उसकी व्याख्या किसी दूसरी चीजके द्वारा देनेके लिये बाधित होते हो । ओर तुम अनिश्चित रूपसे एक चीजके द्वारा दूसरीकी व्याख्या करते हुए सारे संसारका चक्कर लगा लोगे और कभी तुम्हारी व्याख्याका अंत नही आयेगा ।
मूलत:, जब कोई व्यक्ति इस तथ्यको इमकी समग्रतामें ओर इसके साररूपमें देख लेता है तो सबसे बुद्धिमत्ताकी बात जो वह कह सकता है वह यही है : ' 'यह चीज ऐसी है क्योंकि यह ऐसी है । ''
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